गुरुवार, 22 सितंबर 2011

परिचय या प्रताडऩा



सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद रैगिंग रोके नहीं रुक रही है। हरियाणा के पानीपत में एक छात्र ने अपने साथ हो रही रैगिंग का विरोध किया तो सीनियर छात्र ने उस पर चाकू से हमला कर दिया। लहुलुहान हालत में छात्र को निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया है जहां वह जिंदगी और मौत से जूझ रहा हैं। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, टी.वी. तथा बच्चों से बात करने से पता चलता है किजूनियर छात्रों में रैंगिंग का कहर कि स कदर उन्हे सता रहा हैं। अब तो रैगिंग में सहभागी बनने वाले छात्रों से घृणा होने लगी हैं।
रैगिंग का मेरा कोई व्यक्तिगत अनुभव तो नहीं हैं। पर सामान्य अर्थों में रैगिंग वरिष्ठ छात्रों द्वारा अपने कनिष्ठ साथियों को अपने साथ परिचित करने का एक साधन है। पर यह अब परिचय नही प्रताडुना बन चुका हैं। उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश लेने के बाद विशेष रूप से छात्रावासों में लम्बे समय तक परस्पर परिचय के नाम पर रैगिंग से सम्बन्धित गतिविधियाँ चलती हैं, और बाद में वरिष्ठ छात्रों द्वारा जूनियर्स को वेलकम पार्टी देने के साथ के सम्पन्न होती है।
रैगिंग हंसी , मज़ाक, स्वस्थ मनोरंजन ,वरिष्ठ छात्रों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार आदि से प्रारम्भ होकर अपने निम्नतम स्तर तकपहुँच चुकी है तथा यौन उत्पीडन सदृश घृणित कार्य,नशा कराया जाना, सिगरेट- शराब आदि का प्रयोग करने को बाध्य करना, रात भर सोने न देना, बाल, मूंछ-दाढी आदि मुंडवा देना, पैसे ऐंठना, माता -पिता तथा अपने परिजनों को गंदी गाली आदि देना, वस्त्र उतरवा कर चक्कर कटवाना ,एक पैर पर रात भर खड़ा रखना आदि। इतनी गतिविधियाँ तो मेरे संज्ञान में हैं, संभवत: और भी ऐसे कुकृत्य रहते होंगें जिसके कारण नवप्रवेशी छात्रों की रूह काँप जाती है छात्र अपने बहुमूल्य जीवन का अंत कर लेते हैं, मनोरोगों का शिकार हो जाते हैं, नशा करने लगते हैं, प्रतियोगिताओं के माध्यम से मेरिट लिस्ट में स्थान प्राप्त करने वाले छात्र पिछड़ जाते हैं पढाई में इसके अतिरिक्त ये समस्त कार्यक्रम इतने लम्बे समय तक चलता है कि छात्रों में तनाव का वातावरण रहता है। हम शुरू से अपने परिवार व समाज द्वारा प्रदत्त संस्कार का निर्वाह करते आ रहे हैं, परन्तु आज रैगिंग की वजह से यह संस्कार उपहास का विषय बनते जा रहे हैं। पता नही रैगिंग में सहभागिता दर्ज कराने वाले छात्रों को ऐसे कुकृत्य कर कौन सी उपधि प्राप्त होती है? कि वो पढ़ाई से ज्यादा रैगिंग में सहभागी बनने को महत्व देते हैं। और शायद ये छात्र सम्मान के इतने भूखे होते है कि ये अपने कनिष्ठ छात्रों को हर जगह सम्मान करने के लिए मजबूर करते हैं। आज जरूरत उत्पन्न हो गई है कि रैगिंग स्वस्थ रूप में परिचय प्रगाढ़ करने का साधन बने न कि प्रताडऩा का ।

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

उपवास और उम्मीदें


भारतीय राजनीति में इन दिनों उपवास अनशन का दौर है। हर कोई अनशन के सहारे अपने व्यक्तित्व को चमकाना चाहता है बहरहाल अनशन, उपवास को अनुचित नहीं ठहराया जा सकता है। स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी उपवास को आत्म शुद्धि व चरित्रिक शुद्धता व दृढ़ता का बेहतर माध्यम मानते थे दुनिया के हर धर्म में उपवास को प्राथमिकता दी गई है। इस्लाम धर्म में उपवास रोजा के पीछे मूल भावना दूसरों के भूख, दर्द, वेदना को आत्मसात करना है। हम दूसरों की पीड़ा को तभी समझते हैंं जब हम उसे स्वयं अंगीकार करें। फिलहाल हम यहां बात करेंगे गुजरात में विकास का परचम लहराने वाले मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को उपवास को उपवास के पीछे निहितार्थ भावना की अहमियत है। सद्भावना को लक्ष्य केन्द्रित किए नरेन्द्र भाई मोदी का उपवास यदि सामाजिक ताने-बाने को मजबूत कर इंसिनियत की भावना को प्रगाढ़ करता है। तो इसके लिए गुजरात के विकास पुरुष नरेन्द्र मोदी वाकई बधाई के पात्र है। जिस तरह गुजरात ने बीते दो दशकों में विकास के नये आयाम तय किए उससे राष्ट्रीय जनमानस में नरेन्द्र दामोहर भाई मोदी की स्वीकार्यता बढ़ी है। भाजपा की निगाहें इस समय मिशन 2014 पर है उसके लिए उसे नरेन्द्र दमोदर भाई मोदी से काफी उम्मीदें हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि वर्तमान में नरेन्द्र मोदी बीजेपी के सबसे बड़े धाकड़ नेता है। अपने इस सद्भावना मिशन से उन्होंने अपने विराट छवि को दृढ़ किया है। क्या मोदी भारत के अगले प्रधानमंत्री होंगे? यह लाख टके का सवाल है लेकिन इस सवाल ने मोदी विरोधी नेताओं में बेचैनी बढ़ा दी हैं। नरेन्द्र मोदी की राजनीति का एक जुदा अंदाज है। बतौर मोदी वे अपने ऊपर फेंके गए आलोचना रूपी पत्थर को एकत्रित कर उससे विकास की सीढ़ी तैयार करते है। फिलहाल आने वाला समय राजनीतिक दृृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं जो मोदी की स्वीकार्यता या अस्वीकार्यता पर छायी धुंध को हटाएगा एवं भारतीय राजनीति की दिशा निर्धारित करेगा।

बुधवार, 14 सितंबर 2011

राष्ट्रीय खेल का ये कैसा सम्मान ?





राष्ट्रीय खेल का ये कैसा सम्मान ?

भारतीय हॉकी पिछले कई वर्षो से विवादो की वजह से चर्चा में रही है। खिलाडिय़ों से ज्यादा हॉकी में अधिकारियों व फेडरेशन के विवाद पीछा छोडऩे का नाम नही ले रहे है। ऐसे में एशियन चैंपियन्स ट्राफी में भारत की जीत एक सुखद आश्चर्य की तरह आई है। इस जीत से पता चलता है कि भारत में प्रतिभा कि कमी नहीं है, बस जरूरत है हॉकी प्रशासन को पटरी पर लाने कि। एशियन चैंपियंस ट्राफी में भारत का परचम लहराने वाली इस युवा टीम ने पूरे टूर्नामेंट में एक भी मैच नहीं हारी। वही फाइनल में भारत ने परंपरागत प्रतिद्वंदी पाकिस्तान को 4-2 से हराकर खिताब अपने नाम किया। पाकिस्तान से जीत भारतीय हॉकी प्रेमियों के लिए आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी वह 50 साल पहले थी। भारतीयों को इस जीत की खुशी देने वाले भारतीय हॉकी टीम को प्रोत्साहन राशि के रुप में 25 हजार रुपये प्रत्येक खिलाड़ी को दिए जाने की बात ·ही गई जिसे खिलाडिय़ों ने लेने से इंकार कर दिया है। इंकार करे भी क्यों न, अगर क्रिकेट होता तो क्या प्रोत्साहन राशि इसी प्रकार होती? क्या राष्ट्रीय खेल होने का यही मतलब होता है? क्या राज्यों की ओर से चुप्पी छाई रहेगी? क्या हमारे प्रतिभावान हॉकी खिलाडिय़ों के साथ ऐसा ही मजाक आए दिन होता रहेगा? जिस देश में ही इस खेल का जन्म हुआ हो उसी देश में ही उस खेल की ऐसी बदहाल हालत को  देखकर अब तरस आती हैं। हर रोज हॉकी की बेहतरी के  लिए खबरे छपती रहती है, नयी-नयी घोषणाएं होती है पर ऐसी हालत को देखकर यही लगता है कि ये घोषणाए महज फाइलों तक ही सीमित रहती है। विजेता टीम के साथ ये इनामी राशि मजाक जैसा है। विजेता टीम खुद खेल मंत्री के इन खोखले दावे से निराश है जिसमें खेल मंत्री ने राष्ट्रीय खेल को फिर से नई बुलंदियों तक  पहुंचाने कि बात कि है।
विजेता टीम के ·कप्तान खुद कहते है कि खेल मंत्री हमारी उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे हैं और यह मानते है कि यह इनामी राशि मौजूदा खिलाडियों के मनोबल को बढ़ाने के लिहाज से कम है। हॉकी खिलाडिय़ों को दी गई इनामी राशि न केवल मौजूदा खिलाडिय़ों को प्रेरित करने लायक होनी चाहिए बल्कि भावी पीढ़ी को इस खेल कि ओर आकर्षित करने के लिहाज से भी उपयुक्त होनी चाहिए। एक  तरफ 1983 के बाद विश्वकप का सूखा खत्म करने वाली भारतीय क्रिकेट टीम पर धनों और सम्मानों कि बारिश शुरू हो गई थी। बीसीसीआई ने तो मैच खत्म होने के बाद ही नगद इनामों की घोषणा कर दी थी व विभिन्न राज्यों सहित रेल मंत्रालय ने भी टीम इंडिया के  खिलाडिय़ों पर धनवर्षा करने में कोई ·कसर नही छोड़ी थी पर हमारे राष्ट्रीय खेल के खिलाडिय़ों के साथ ऐसा पझपात पूर्ण रवैया समझ से परे हैं। हॉकी के साथ बरसों से ऐसा सौतेला व्यवहार होता रहा है। फिर भी इस दिशा में कोई ठोस पहल होते नही दिख रहा हैं। सरकार को अब हॉकी खिलाडिय़ो के सुविधाओं में वृद्धि करनी होगी व हॉकी की  बेहतरी के लिए कार्य करना होगा। तब ही हमारे राष्ट्रीय खेल की बुनियाद मजबूत होगी। व हम इस खेल में एक बार फिर सिरमौर होंगे।

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

अलोकतांत्रिक सरकारों के खिलाफ औजार बनते सोशल नेटवर्किंग साइट्स

अलोकतांत्रिक सरकारों के खिलाफ औजार बनते सोशल नेटवर्किंग साइट्स
सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने इन दिनों इंटरनेंट की दुनिया पर अपना वर्चस्व कायम कर लिया है। पर कतिपय आसामाजिक  लोगो की वजह से सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर प्रभावी निगरानी के लिए सरकार इंतजाम करने में जुटी हैं। शासन के स्तर पर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर निगरानी व निषेधाज्ञा कोई नया कदम नहीं है, पर हाल के दिनों में सोशल नेटवर्किंग साइटे का प्रयोग काफी हद तक बहुत बढ़ा है जिसके लिए राज्यहित, देश की सुरक्षा, आतंकवाद व साइबर क्राइम जैसे पुराने तर्क  गढ़े जा रहे हैं। पर इन सब से अलग हटकर हाल-फिलहाल सत्ता परिवर्तन के ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें जनता ने नव संचार माध्यमों को अलोकतांत्रिक सरकारों के खिलाफ औजार बनाया है। और इस औजार के बलबूते उन्हे कुछ हद तक सफलता भी मिली हैं। भारत में भी छिटपुट आंदोलन, सरकार विरोधी या भ्रष्टाचार विरोधी अभियान इन दिनों चल रहे हैं, युवाओं ने इन आंदोलन में अपनी सहभागिता सोशल नेटवर्किंग साइट्स के माध्यम से ही दर्ज करायी हैं। इसलिए केंद्र सरकार ने दूसरे देशों में बने माहौल से बचने के लिए अपनी सतर्कता बढ़ा दी है। संगठित जनविरोध में सोशल साइट्स जनसंचार माध्यम का कम  करती है। यह भविष्य के संगठित विरोध से निपटने की तैयारी है। जनता से मिलने वाली चुनौती से निपटने में भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखकर सरकार अन्य उपाय भी कर रही है। आंदोलनों या प्रदर्शनों के बावत प्रशासन से ‘पूर्व अनुमित’ लेने की शर्त व धारा 144 को लागू करने के मामले बढ़े हैं। दिल्ली पुलिस से प्रदर्शन की अनुमति पाने के लिए अन्ना हजारे व उनकी टीम को जेल जाने तक का संघर्ष करना पड़ा था। सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के  नेतृत्व में चले भ्रष्टाचार विरोधी पूरे आंदोलन के सिलसिले में ऑरकुट, फेसबुक, ट्विटर व गूगल प्लस जैसी सोशल साइट्स पर हुई या हो रहीं गम्भीर बहसों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता है।
सरकार सोशल साइट्स से आशंकित है क्योंकि यह भविष्य में व्यापत बदलाव के लिए लोगों को एकजुट कर सकता है। आज जब यह केवल शहरी पृष्ठभूमि तक सिमटा हुआ है, सरकार प्रस्तावित नीतिगत और मौद्रिक भ्रष्टाचार, नेताओं की विलासिता या अन्य सरकारी गैर-वाजिब फैसलों को ले·र इन मंचों की गतिविधियां लोगों का जुड़ाव बताती हैं।

सोमवार, 12 सितंबर 2011

ध्यानचंद को भारत रत्न सच्ची श्रद्धांजलि



जैसे ही भारत रत्न सम्मान देने के नियमों में संशोधन की बात हो रही है और यह सुनने में आ रहा है की यह सम्मान पाने वालों की फहेरिस्त में अब खिलाडिय़ों को शमिल किया जा रहा है तबसे मेरे मन में बार-बार एक ही सवाल उठ रहे है की खिलाडिय़ों की श्रेणी में यह सर्वोच्च सम्मान पाने का पहला हकदार कौन होगा? कभी क्रिकेट के बेताज बादशाह सचिन तेंदूलकर का नाम आता है तो कभी हाकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद का नाम आता हैं। मैं सचिन का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं |
जिसने न सिर्फ लाखों भारतीयों को बल्कि दुनिया भर के क्रिकेट प्रेमियों को अपने प्रदर्शन व नित नए कीर्तिमान स्थापित कर अपना मुरीद बनाया। अभी तक उनके व्यवहार पर किसी तरह का कोई छोटा सा भी आरोप-प्रत्यारोप नहीं लगा है । बेशक जिस तरीके से सचिन ने खेल के लिए पैशन को बनाए रखा है, उसके लिए आज का युवा उन पर गर्व करता हैं। क्रिकेट के बादशाह से जुड़ी इन तमाम महान चीजों के बावजूद, समझ नही पा रहा हूं की खेल के क्षेत्र में भारत रत्न सम्मान पाने वाले वह पहले खिलाड़ी होने चाहिए या नही?
बीते कुछ दिनों से एक और नाम सामने आ रहा है। अगर आप खेलप्रेमी होने का दावा करता है तो आप को ध्यान चंद के बारे में पता होना ही चाहिए। जिसने 1928 एम्सटर्डम, 1932 लॉस ऐंजिलिस और 1936 बर्लिन ओलिंपिक में देश के लिए हॉकी में लगातार तीन ओलिंपिक स्वर्ण पदक जीतने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दुनिया भर के लोगों के पास इस 70 मिनट के खेल में ध्यान चंद की जादुई खेल के बहुत से ·किस्से -·कहानियां सुनते आ हैं। 1936 में जब भारत ने बर्लिन ओलिंपिक में अपना पहला खेल खेला, तो यह शब्द उन दिनों चारों ओर सुनाई दिया की एक जादूगर हॉकी मैदान पर उतर आया है। इतना ही नहीं इस जादूगर ने दूसरी टीम के दर्शको का ध्यान भी अपनी ओर खींचा। वही एक बार एक महिला दर्शक ने ·हाकी का अगर वह वाकई जादुगर हैं, तो क्या वह उसकी छड़ी के साथ खेल सकते हैं ? ध्यान चंद ने उनकी छड़ी के साथ खेला और गोल भी किये | और हां सबसे दिलचस्प किस्सा तो वह है जब बर्लिन ओलिंपिक में हिटलर ने उनके अद्भुत प्रदर्शन को देखने के बाद उन्हें जर्मन नागरिकता और जर्मन सेना में प्रमोशन की पेशकश तक कर डाली। यह अलग बात है कि ध्यान चंद ने इस पेशकश को ठुकरा दिया। जब ध्यान चंद खेला करते थे तो वह हॉकी का स्वर्णिम युग था और उस समय हॉकी कि दुनिया में कई महान खिलाड़ी थे। लेकिन ध्यानचंद अपने जमाने के अन्य खिलाडिय़ों से मीलो आगे थे और उनकी किसी से तुलना भी नहीं कि जा सकती थी। हालांकि सचिन तेंदूल·र भी महान खिलाड़ी हैं, पर क्रिकेट में कुछ ऐसे खिलाड़ी हुए हैं जो उनसे बेहतर भले न हों, पर उनकी ·कटिगरी ·के जरूर कहे जा सकते हैं। ध्यानचंद के मामले में कोई भी ऐसा नहीं है जो उनके करीब भी आता हो। लेकिन फिर भी कोई भी हॉकी पर ध्यानचंद जितनी करिश्माई पकड़ नहीं रखता था।

ध्यानचंद आज इस इस दुनिया मे नही हैं। सरकार ने उनके जन्मदिवस को खेल दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया है, उनके नाम से स्टेडियम बनाया गया। पर उनको मरणोपरांत उन्हे खिलाडिय़ों की श्रेणी में पहला भारत रत्न मिलता हे तो यह उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

शनिवार, 10 सितंबर 2011



दिल्ली की तैरक प्रियंका प्रियदर्शिनी का साक्षात्कार


१५ अगस्त पर लेख


शूटर ओमकार सिंह डीके साक्षात्कार


शुक्रवार, 9 सितंबर 2011


रस्मअदायगी कब तक ?

दिल्ली दर्द में डूबी है। आतंकी हमले से मिले जख्म को वो भूल नहीं पा रहे हैं। एक धमाके की बुरी यादें खत्म नहीं होतीं कि दूसरा धमाका दिल्ली को दहला जाता है। दिल्ली हाईकोर्ट के बाहर हुए धमाके ने ए . के. शर्मा के परिवार को ऐसा जख्म दिया है। जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती है। ए . के. शर्मा तो अब इस दुनिया में नही हैं। उनके पुत्र व पुत्री रिषभ और दामिनी गुरूवार की सुबह अपने पिता का शव लेने राममनोहर लोहिया अस्पताल पहुंचे है। लेकिन उन्हें अभी तक अनके पिता का शव नही मिल पाया है। और रस्मअदायगी करने वाले नेताओं की लाइन वार्ड में एक के बाद एक बढ़ती जा रही रही है।

रिषभ और दामिनी के अलावा भी कई घायलों के परिजन सुबह से शाम तक बिलखते नजर आ रहे है लेकिन उन्हें मिलने का मौका नहीं दिया जा रहा हैं। वो बार- बार डाक्टरो के पास पहुंच कर गुहार लगा रहे हैं। डाक्टर तो उनका दर्द महसूस कर रहे है पर डाक्टर भी रस्मअदायगी करने आने वाले नेताओं की लम्बी लाईनों के आगे खुद को पीछे पा रहे हैं। इन्ही लंबी लाइनो से त्रस्त होकर राममनोहर लोहिया अस्पताल के ही एक डॉक्टर ने कह भी दिया है। घायलों के प्रति संवेदना जताने से ज्यादा जरूरी उनके घाव के संक्रमण रोकना है, नेताओं की आवाजाही की वजह से हमें इलाज करने में काफी दिक्कते हो रही है। लेकिन इससे रस्मअदायगी करने वाले नेताओं को क्या? कांग्रेस महासचिव राहुल गाँधी भी रस्मअदायगी करने में आज कल काफी आगे निकल चुके हैं। जब बुधवार की दोपहर राममनोहर लोहिया अस्पताल में एकाएक लोगों के मोबाइल फोन ने काम करना बंद कर दिया तब पता चला की राहुल की सुरक्षा के लिए फोन जैमर को सक्रिय कर दिया गया है। अस्पताल में घायलों के दर्द को समझने की जगह दिल्ली पुलिस उन्हें रस्से के बाड़े में बाँधकर नेताओं के लिए रास्ता बनाने में जुटी थी। लेकिन जिन परिजनों की संवेदना की जरूरत घायलों को सबसे अधिक थी वो दूर रस्से से धकेले जा रहे थे।

राहुल ने अस्पतालों के वार्ड में पहुँचकर घायलों के प्रति अपनी संवेदना जताने की रस्म अदा की और चलते बने...लेकिन चलते- चलते उन्हे वहा मौजूद घायलों के परिजनों के आक्रोश का सामना करना पड़ा। पता नही हर बार की तरह बम ब्लास्ट के बाद बयानों के ब्लास्ट, आतंकवाद के खिलाफ नारे बुलंद होते है लेकिन फिर भी नतीजा ज्यों का त्यों ही मिलता है। अब आगे देखना है कब तक हमारे नेता रस्मअदायगी का चलन बरकरार रखते हैं।

फिर नाकाम हुआ खुफिया तंत्र


दो महीने की शांति के बाद बुधवार की सुबह एक बार फिर धमाकों से दहल गई। 13 जुलाई को मुंबई में कई जगहों पर कुछ अंतराल में हुए धमाकों ने पूरे भारत को थर्रा दिया था। इस बार भारत के दुश्मनों ने भारत की राजधानी में स्थित न्याय के मंदिर को निशाना बनाया है। दिल्ली हाई कोर्ट के बाहर हुए एक शक्तिशाली धमाके में कई लोगों को अपनी जान गंवाना पड़ी।

देश की राजधानी के सौहाद्र्र पर एक बार फिर हमला कर आतंकियों ने अपना कहर बरपाया, दिल्ली ही नहीं अपितु देश के हर कोने-कोने में 7 सितम्बर की चर्चा चल रही हैं। आतंकियो की हरकतों से सारा भारत अछूता नहीं है। मंगलवार की सुबह लगभग 10.14 बजे दिल्ली के हाईकोर्ट के गेट नं 5 में धमाकों ने जो कहर बरपाया शायद ही वह कोई भूल पाएगा। इस ब्लास्ट से 11 लोगो की घटनास्थल पर ही मौत हो गई व तकरीबन 85 से ज्यादा लोग घायल है। आतंकियों द्वारा दिल्ली और मुंबई क ो बार-बार टारगेट बनाने के बावजूद सुरक्षा और सूचना के पुख्ता इंतजाम करने में हमारा खुफिया तंत्र एक बार फिर नाकाम साबित हुआ। इस धमाके का गुबार अभी थमा भी नहीं कि राजनेता, नौकरशाह और जनता की सुरक्षा के जिम्मेदार हमेशा की तरह वही पुराने रटे-रटाए सरकारी बयान दे रहे हैं। चिथड़े हुए इन बयानों के सुराखों में कई सवाल झांकते नजर आ रहे हैं। जनता का विश्वास खोती सरकार राजधानी में हुए इस धमाके से सकते में है। 25 मई को हाईकोर्ट के गेट नंबर सात के पास बनी पार्किंग में एक कार के नीचे बम प्लांट किया गया। इस विस्फोट के चलते हालांकि कोई हताहत नहीं हुआ था। उस समय यह माना जा रहा था कि बम किसी की जान लेने के इरादे से प्लांट नहीं किया गया। इसी के चलते इसे महज रिहर्सल के रूप में देखा जा रहा था। हाईकोर्ट के बाहर हुए ब्लास्ट के रिहर्सल से दिल्ली पुलिस ने समय रहते सबक नहीं लिया और आतंकी संगठन ने वक्त की नजाकत का फायदा उठाकर हमला बोल दिया। लोकतांत्रिक आंदोलनों का कड़ाई से निपटारा करने वाले गृहमंत्री अभी मुंबई धमाकों की कालिख साफ करने में ही व्यस्त थे कि दिल्ली हाई कोर्ट में हुए धमाके ने उनके दामन पर एक और दाग लगा दिया। कुछ दिनों के अंतराल के बाद बार-बार भारत के प्रमुख शहरों को अपना निशाना बनाते आ रहे आतंकी संगठन स्पष्ट रूप से यह संदेश दे रहे है कि वे जब चाहे तब अपने इरादों में कामयाब हो सकते हैं।

आतंकियों के बढ़े हुए हौसले का प्रमुख कारण भारत का लचर कानून भी है। हाल के दिनों में भारतीय कानून की सबसे बड़ी खामियां उजागर हुई। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों की सजा-ए-मौत पर राष्ट्रपति द्वारा रहम की अपील खारिज करने के बाद भी तमिलनाडु विधानसभा में उन्हें माफी दिए जाने को लेकर इतना हंगामा हुआ कि अभियुक्तों की फांसी आगे बढ़ाना पड़ी। मुंबई हमले के एकमात्र जीवित पकड़े गए आतंकी अजमल कसाब को भी अब तक सजा नहीं हुई है। दिल्ली को दहलाने के लिए आतंकियों ने ऐसे समय को चुना जब हाईकोर्ट के बाहर वकीलो व आमजनो का आना शुरू होता हैं। आतंकी अपने इरादों को अंजाम देकर देश में अशांति फैलने का काम करते हैं। ऐसी भीड़ भरी जगहों में विस्फोटकों को पहुंचने से रोकना मुश्किल है। परंतु जहां विस्फोट करने की साजिश को अंजाम दिया जा रहा है और जो लोग इस साजिश को रचने में मशगूल है। अगर हमारा खुफिया तंत्र उन्हें नहीं पकड़ सकता तो देश में आतंकवाद भी नहीं थम सकता। उक्त स्थल में कहंा भीड़ जुटती है, कब जुटती है। विस्फोट कहा रखना है। कैसे रखना हैं ब्लास्ट का समय क्या है। किसी को संदेह न हो ये सभी तैयारियां बिना किसी स्थानीय सहयोग के कतई संभव नहीं है। इंडियन मुजाहिदीन के नाम से जो देशद्रोही संगठन हमारे देश में अपने मंसूबों को अंजाम दे रहा है। उसे कुछ हद तक बर्बाद तो कर दिया गया है। परन्तु कुछ इंडियन मुजाहिदीन के कुछ सेल आज भी हमारे देश में काम कर रहे हैं जिन्हें किसी न किसी स्थानीय का भी सहयोग मिल रहा है। यह केवल बम विस्फोटों का मसला नहीं है अपितु यह आंतरिक सुरक्षा का मसला है। आज देश को जो एक सूत्र में पिरोने की बजाए लड़वाने व साम्प्रदायिकता को भडक़ाने की कोशिश कर रहे हैं इन्हें मजबूत खुफिया तंत्र के द्वारा ही पकड़ा जा सकता है। आतंकियों का मकसद तो साफ ही है कि हमारे देश को नुकसान पहुंचाकर हमें आपस में लड़वाएं हमारे देश में आतंकियों को तत्काल सजा मिलने का जैसे कोई प्रावधान ही नहीं है। देश में अभी भी कानून तो ऐसे हैं कि कोई अपराध करे तो वह बच नहीं सकता। लेकिन उन्हें छोडऩा समझ से परे हंै। देश के नेतागण व प्रभावशील लोग उनके बचाव में खड़े हो जाते हंै। छह महीने तक कोई विस्फोट नहीं होता तो हमारा खुफिया तंत्र यह समझ लेता है कि अब ठीक-ठाक चल रहा है। सब कुछ शान्त है। यह समझकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है।

आज आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने की जरूरत है। नहीं तो इस तरह के विस्फोट आए दिन होना कोई नयी बात नहीं होगी। कुछ दिन बाद ही ही 26/11 को ताज हमले में शहीद हुए जवानों को श्रद्धासुमन अर्पित किए जाएंगे। आतंकवाद से लडऩे के नारे बुलंद होगें। विभिन्न राजनैतिक पार्टिया श्रद्धांजलि सभाएं आयोजित करेंगी। आतंकवाद के खात्में के संकल्प दोहराए जाएंगें परन्तु फिर से जैसा का तैसा ही देखने को मिलेगा। आतंकी हमले में शहीद हुए जवानों को सच्ची श्रद्धांजलि तभी अर्पित होगी जब आरोपी कसाब को सजा-ए-मौत दी जाए।

अभी तक इस ब्लास्ट के सिलसिले में पुलिस किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाई। भले ही स्पेशल सेल ने हापुड़ से कुछ लोगों को पूछताछ के लिए हिरासत में लिया। आला पुलिस सूत्रों के अनुसार इस तरह का ब्लास्ट होने का कोई इनपुट खुफिया एजेंसियों से नहीं मिला था। लेकिन पहले भी धमाका होने के बावजूद कहीं न कहीं दिल्ली पुलिस पर सवाल उठने लाजमी हैं।

आखिर कब तक इस देश की जनता पीडि़त होती रहेगी? कब तक देश के दुश्मनों को सरकारी मेहमान बनाया जाता रहेगा? ऐसे कई सवाल हैं जिनका जवाब सरकार को तत्काल देना होगा।